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अदालतों में पैरवी के लिए रिश्वत के पैसों का सहारा, डीसी दफ्तरों का चौंकाने वाला खुलासा !

PUBLISH DATE: 26-09-2025

अदालती जवाबदावों के लिए करप्शन से कमाए पैसों का हो रहा इस्तेमाल !


भ्रष्ट अधिकारियों की शिकायतों को ठंडे बस्ते में डालने व कोई कारवाई न करने के पीछे क्या यही है असली वजह ?


 


जालंधर, 26 सितंबर : पंजाब की प्रशासनिक कार्यप्रणाली पर एक गंभीर सवाल खड़ा हो गया है। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार प्रदेश के विभिन्न जिलों के डिप्टी कमिश्नर (डीसी) दफ्तरों से अदालतों में चल रहे केसों की पैरवी के लिए रिश्वत के पैसों का सहारा लिया जा रहा है। यह खुलासा न केवल शासन-प्रशासन की पारदर्शिता पर प्रश्नचिह्न लगाता है, बल्कि न्याय व्यवस्था की पवित्रता को भी गहरा आघात पहुंचाता है।


पंजाब के डीसी दफ्तरों से जुड़ा यह खुलासा प्रशासनिक तंत्र की गहरी जड़ों में फैले भ्रष्टाचार का प्रमाण है। इससे यह भी साफ हो जाता है कि रिश्वत केवल व्यक्तिगत फायदे तक सीमित नहीं रही, बल्कि अब इसका इस्तेमाल अदालतों जैसी पवित्र संस्थाओं की कार्यप्रणाली को भी प्रभावित करने में किया जा रहा है। यह स्थिति न केवल प्रदेश की छवि को धूमिल करती है, बल्कि न्याय की निष्पक्षता और विश्वसनीयता पर भी गंभीर सवाल खड़े करती है।


जब तक सरकार इस दिशा में ठोस कदम नहीं उठाती और अदालतों में केसों की पैरवी के लिए पारदर्शी फंड व्यवस्था लागू नहीं करती, तब तक रिश्वत का यह काला खेल जारी रहेगा और न्याय-व्यवस्था को दागदार करता रहेगा।


इस पूरे मामले का खुलासा हाल ही में जालंधर डीसी दफ्तर इंप्लाईज़ यूनियन द्वारा पास किए गए एक प्रस्ताव में खुलकर बताई गई बातों के बाद हुआ है। यह पूरा मामला बेहद हैरान करने वाला है और इसके ऊपर गंभीर चिंतन की ज़रूरत है। क्योंकि ऐसे मामलों से पूरी सरकार व प्रशासन की साख को गहरा धक्का लगता है। जिसका सीधा असर प्रदेस की जनता पर भी पड़ता है। 


अदालतों में केस और जवाबदावों की क्या है ज़मीनी हकीकत ?


हर जिले में पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के सामने दर्जनों मामले लंबित रहते हैं। इन मामलों में सरकारी पक्ष को अपनी दलीलें और जवाबदावे (Replies/Affidavits) अदालत के सामने प्रस्तुत करने होते हैं। सामान्य तौर पर यह काम किसी नियुक्त सरकारी वकील या प्रशासनिक प्रक्रिया के तहत होना चाहिए। मगर हकीकत यह है कि यह जवाबदावे अक्सर संबंधित शाखाओं के क्लर्कों द्वारा निजी स्तर पर तैयार करवाए जाते हैं।


इसके लिए या तो निजी वकीलों की सेवाएं ली जाती हैं या फिर डीसी दफ्तर में काम कर चुके रिटायर्ड अधिकारी और कर्मचारी, जिन्हें अदालती प्रक्रियाओं का अच्छा-खासा अनुभव होता है, उनकी मदद ली जाती है। बताया जाता है कि एक जवाबदावा तैयार करने की एवज में 5,000 रुपये तक नकद भुगतान किया जाता है।


सबसे बड़ा सवाल : यह पैसा आता कहां से है ?


इस पूरे मामले का सबसे चिंताजनक पहलू यही है कि सरकार की ओर से अदालतों में केसों की पैरवी के लिए किसी भी तरह का अलग फंड उपलब्ध नहीं करवाया गया है। यानी जो पैसा इन जवाबदावों की तैयारी में खर्च होता है, वह सरकारी खजाने से नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार की कमाई से आता है।


सूत्रों की मानें तो यह रकम रिश्वत के तौर पर अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा इकट्ठा की गई अवैध कमाई में से निकाली जाती है। ज़्यादातर मामलों में एसडीएम दफ्तर, डीआरओ दफ्तर, एडीसी दफ्तर या फिर तहसीलदारों को कहा जाता है कि वे इस खर्चे का इंतज़ाम करें। और चौंकाने वाली बात यह है कि वे यह जिम्मेदारी बेहद आसानी से उठा भी लेते हैं, क्योंकि बदले में उनका प्रशासनिक तंत्र उन्हें सुरक्षा कवच प्रदान करता है।


शिकायतों को ठंडे बस्ते में डालने का है यह पूरा खेल


सूत्र बताते हैं कि जब कभी इन तहसीलदारों या अन्य अधिकारियों के खिलाफ कोई शिकायत उच्चाधिकारियों तक पहुंचती है, तो उसे गंभीरता से लेने के बजाय या तो ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है या फिर रफा-दफा कर दिया जाता है। ऐसे में उनके पास रिश्वत की राशि इकट्ठा करने और उसका इस्तेमाल करने की पूरी छूट बनी रहती है।


इस तरह एक ‘गुप्त समझौते’ के तहत भ्रष्टाचार का यह चक्र चलता रहता है—अधिकारियों की शिकायतें दबाई जाती हैं और बदले में अदालतों में पैरवी के लिए आने वाला खर्च इन्हीं की जेब से निकलता है।


डीए (एडमिनिस्ट्रेशन) की भूमिका पर भी उठ रहे कई सवाल


कुछ जिलों में प्रशासनिक कार्यों की पारदर्शिता और दक्षता बढ़ाने के लिए डिप्टी कमिश्नर दफ्तरों में डीए (एडमिनिस्ट्रेशन) भी नियुक्त किए गए हैं। उम्मीद थी कि इनके रहते जवाबदावे तैयार करवाने और अदालतों में पेश करने की प्रक्रिया नियमित और साफ-सुथरी होगी। लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि अधिकारी इन पर भरोसा करने के बजाय पुरानी परंपरा के अनुसार ही काम करवाते हैं। यानी अवैध तरीकों से ही जवाबदावे तैयार करवाए जाते हैं और रिश्वत का पैसा खर्च होता रहता है।


न्याय-व्यवस्था पर लग रहा गहरा दाग


मामले का सबसे गंभीर पहलू यह है कि रिश्वत की काली कमाई का उपयोग सीधे तौर पर अदालतों में पैरवी करने जैसे पवित्र कार्य में हो रहा है। अदालतें जहां आम जनता के लिए न्याय का अंतिम और सर्वोच्च स्तंभ मानी जाती हैं, वहीं उनकी प्रक्रिया में इस तरह का भ्रष्टाचार न केवल व्यवस्था की साख को गिराता है, बल्कि समाज के सामने भी गलत संदेश पहुंचाता है।


प्रशासन पर भी लग रहे कई सवालिया निशान


यह पूरा प्रकरण प्रशासनिक लापरवाही और जिम्मेदारी से बचने की प्रवृत्ति को भी उजागर करता है। जब सरकार के पास अदालतों में केस लड़ने और जवाबदावे दाखिल करने के लिए फंड ही उपलब्ध नहीं है, तो सवाल उठता है कि आखिर आम जनता के टैक्स का पैसा किस दिशा में खर्च हो रहा है? और यदि वास्तव में अदालतों की पैरवी रिश्वत के पैसों से हो रही है, तो क्या यह प्रशासन और न्याय दोनों के लिए शर्मनाक स्थिति नहीं है ?


पढ़िए डीसी दफ्तर इंप्लाईज़ यूनियन जालंधर इकाई द्वारा पास किए गए प्रस्ताव की कापी, और खुद कीजिए फैसला