डीसी की अदालत में हुई किरकिरी मामला - 2 साल 11 महीने 13 दिन चला केस, नहीं दिया काेई "खास ध्यान" !
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केस हारने के बाद भी 10 महीने साेए रहे 'कुंभकर्णी नींद', 'अटैचमैंट' का आदेश जारी हाेने के 3 महीने बाद भी डीसी काे नहीं दी जानकारी !
ज़िले में अगर ऐसे 'हाेनहार अधिकारी' हाें ताे, डीसी जैसे आला अधिकारी नहीं साे सकते 'चैन की नींद' !
कुछ दिन पहले जालंधर के डीसी काे लेकर एक ऐसी खबर आई, जिसने सबकाे हिलाकर रख दिया। जैस ही हाट न्यूज़ इंडिया ने इस खबर काे प्रकाशित किया, पूरे डीसी दफ्तर में मानो जैसे भूकंप वाली स्थिति बन गई। बात भी काफी गंभीर थी क्याेंकि स्थानीय अदालत की तरफ से एक केस में डीसी की सरकारी इनोवा गाड़ी, पंखे, एसी व फर्नीचर काे अटैच करने का आदेश जारी कर दिया गया था। 2 दिन तक पूरे शहर में केवल इसी बात काे लेकर चर्चाएं जारी रही थी।
अपनी सरकारी गाड़ी, पंखे, एसी व फर्नीचर आदि की अटैचमैंट के आदेश से जालंधर के डीसी जैसे-तैसे बच गए और माननीय अदालत ने भी लगभग 1 महीने (16-09-2024) का समय प्रदान कर दिया। मगर इस पूरे मामले ने सबको एक बात सोचने पर ज़रूर मजबूर कर दिया कि आखिर कैसे अदालत काे इतना कड़ा रूख अख्तियार करना पड़ा ? क्या वाकई में डीसी की काेई गलती थी ? क्या ज़िला प्रशासन द्वारा जानबूझकर अदालत के आदेश की पालना नहीं की गई ? इस पूरे मामले में असली दाेषी कौन है और उसकी क्या सज़ा हाेनी चाहिए ?
2015 से लेकर 2024 तक अधिकारियाें व कर्मचारियाें का गैर-ज़िम्मेदाराना रवैय्या हैरान करने वाला
इस पूरे मामले में एक बात से सब लाेग अभी अनजान हैं, कि एक दिन में ही अदालत ने इतना कड़ा फैसला सुना दिया। दरअसल याचिकाकर्ता द्वारा 6 नवंबर 2020 काे स्टेट आफ पंजाब, रैवेन्यु डिपार्टमैंट, सिविल सैक्रेटेरिएट, चंढीगड़ के साथ-साथ कलैक्टर जालंधर एवं तहसीलदार सेल्ज़ कम मैनेजिंग अफसर, जालंधर-2 के खिलाफ स्थानीय अदालत में एक केस दायर किया गया था। और यह केस पूरे 2 साल 11 महीने 13 दिन चला। इस केस का फैसला सरकार, डीसी एवं तहसीलदार के खिलाफ एक्स-पार्टी हाे गया। जिसमें 2 लाख 36 हज़ार 250 रूपए 9 प्रतिशत सालाना ब्याज दर के साथ 15 फरवरी 2018 से केस दायर करने की तारीख तक एवं बाद में 6 प्रतिशत ब्याज के साथ (जब तक पैसे नहीं दिए जाते तब तक) देने का फैसला दिया गया।
मगर हमारे ज़िले के कुछ हाेनहार अधिकारी व कर्मचारी कुंभकर्णी नींद साेए रहे और उन्हाेंने इस केस में सरकार व प्रशासन का पक्ष सही ढंग से प्रस्तुत करने की ज़हमत ही नहीं उठाई, जिससे माननीय अदालत ने एक-तरफा फैसला सुना दिया।
हद ताे तब हुई जब केस हारने के बाद भी संबंधित अधिकारियाें व कर्मचािरियाें काे काेई फर्क ही नहीं पड़ा। जिसके परिणामस्वरूप याचिकाकर्ता ने मजबूरीवश 2 जनवरी, 2024 काे स्थानीय अदालत में पहले से दिए गए फैसले की एगज़ीक्यूशन के लिए एक और केस दायर कर दिया। मगर इस केस में भी पूर्व की भांती हाेनहार अधिकारियाें ने काेई खास ध्यान नहीं दिया और पूरे 10 महीने तक डीसी काे काेई जानकारी तक देने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई।
सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार जिस दिन हाट न्यूज़ इंडिया की तरफ से इस खबर काे प्रकाशित किया गया, उसी दिन शाम काे डीसी के पास इस मामले की जानकारी दी गई, जो अपने आप में बेहद हैरान करने वाली बात है।
इतना ही नहीं जब माननीय अदालत ने 23 मई, 2024 काे डीसी की सरकारी गाड़ी आदि काे अटैच करने का आदेश दिया ताे भी इन साेए हुए अधिकारियाें व कर्मचारियाें की नींद ही नहीं खुली।
क्या है मामला, क्याें जारी हुआ था ऐसा आदेश ?
प्राप्त जानकारी के अनुसार हलका रेरू के बांसियां में लगभग 54 कनाल की एक ज़मीन पर याचिकाकर्चा का कब्ज़ा था। इस कब्ज़े काे हटाने के साल 2015 में माननीय पंजाब एंड हरियाणा हाईकाेर्ट द्वारा एक आदेश जारी किया गया था। जिसमें साल 2016 काे हल्का कानूनगाे ने एक पत्र जारी करते हुए अदालत के आदेशानुसार ज़मीन के मालिक काे जगह का कब्ज़ा दिला दिया था। मगर उस समय उक्त ज़मीन जिसका कब्ज़ा पहले याचिकाकर्ता के पास था, उसके द्वारा वहां फसल बोई गई थी। जिसके लिए बनता मुआवज़ा 2 लाख 36 हज़ार 250 रूपए भारतीय स्टेट बैंक जमा करवाने की सूचना भी दी गई थी। जिसके उपरांत उकर्त ज़मीन का इंतकाल रैवेन्यु रिकार्ड में दर्ज करके साल 2015-16 की जमाबंदी में भी इसका इंदराज कर दिया गया था।
लिखित तौर पर मुआवाज़ा मांगने पर भी नहीं किया तहसीलदार ने भुगतान !
इसके बाद याचिकाकर्ता ने तहसीलदार सेल्ज़ कम मैनेजिंग अफसर, जालंधर-2 काे बाकायदा तौर पर एक लिखित पत्र लिखकर अपने खाते की जानकारी देते हुए मुआवज़े की राशी उसमें जमा करवाने के लिए निवेदन किया गया था। मगर बिना किसी कारणवश तहसीलदार सेल्ज़ कम मैनेजिंग अफसर, जालंधर-2 की तरफ से उक्त अदालत के आदेश द्वारा दी जाने वाली राशी याचिकाकर्ता काे दी ही नहीं गई।
लीगल नोटिस की भी नहीं तहसीलदार दफ्तर काे काेई परवाह !
इसके उपरांत याचिकाकर्ता ने सैक्शन 80 सीपीसी के अंतर्गत संबिधत पक्षाें काे लीगल नोटिस भी दिया था, जाे कि उनकी तरफ से रिसीव भी किया गया, मगर राशी का भुगतान नहीं किया गया। जिसके बाद अब केवल माननीय अदालत में केस दायर करने का विकल्प भी बाकी बचता था। क्याेंकि अदालत के आदेश जारी करने के बाद भी भुगतान न करना विश्वास ताेड़ने (ब्रीच आफ ट्रस्ट) के बराबर कहा जा सकता है।
जिसके बाद संबधित पक्ष ने उक्त अदालती आदेश की पालना यानि कि एगज़ीक्यूशन का केस लगाया, जिसमें कुछ समय पहले माननीय अदालत ने कड़ा रूख अख्तियार करते हुए डीसी की सरकारी इनोवा गाड़ी पंखे, एसी एवं फर्नीचर काे अटैच करने का आदेश जारी कर दिया है।
अदालत केसाें के लिए बना है विशेष लीगल सैल, जाे संबंधित अधिकारियाें काे देता है पूरी जानकारी
इस पूरे मामले में एक और खास बात ध्यान देने लायक है कि कुछ साल पहले तत्कालीन डीसी द्वारा अदालती केसाें की लगातार बढ़ती गिनती एवं उसकी गंभीरता काे देखते हुए एक विशेष लीगल सैल की स्थापना भी की गई थी। जिसमें डीए एडमिन के इलावा डीसी दफ्तर से एक जूनियर सहायक व कुछ अन्य लाेगों काे शामिल किया गया था। ताकि अगर काेई भी केस अदालत में जाता है ताे उसकी समय पर पूरी जानकारी संबंधित अधिकारियाें व कर्मचारियाें तक पहुंचाई जा सके।
सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार लीगल सैल द्वारा बाकायदा तौर पर एक चिट्ठी निकालकर संबंधित अधिकारियाें व कर्मचारियाें काे केस की गंभीरता से वाकिफ करवाते हुए पूरी जानकारी प्रदान की गई थी। मगर अपने चिर-परिचित अंदाज़ में उन्हाेंने इसकी रत्ती भर परवाह करना ठीक नहीं समझा।

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